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आयुर्वेद और योग साहित्य का वैश्विक प्रभाव डा. राज पाल, प्राचार्य, गांधी आदर्श कालेज, समालखा (पानीपत) ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]() ![]()
"योग और आयुर्वेद" भारतीय संस्कृति की दो महान धरोहरें हैं, जिनकी जड़ें हजारों वर्षों पूर्व वेदों और उपनिषदों में मिलती हैं। जहाँ योग आत्मा, शरीर और मन के संतुलन की कला है, वहीं आयुर्वेद जीवन की संपूर्णता को संतुलित और स्वस्थ बनाए रखने की एक वैज्ञानिक पद्धति है। यह शोध-पत्र "आयुर्वेद एवं योग साहित्य" के वैश्विक प्रभाव का सम्यक् एवं विश्लेषणात्मक अध्ययन प्रस्तुत करता है। इसका उद्देश्य यह समझना है कि प्राचीन भारतीय साहित्यिक परंपराएँ आज की वैश्विक स्वास्थ्य व्यवस्था, जीवनशैली और शैक्षणिक ढांचे को किस प्रकार प्रभावित कर रही हैं। इस शोध में सर्वप्रथम यह समझने का प्रयास किया गया है कि योग और आयुर्वेद के प्रमुख ग्रंथ—जैसे चरक संहिता, सुश्रुत संहिता, अष्टांग हृदयम्, हठयोग प्रदीपिका, पतंजलि योगसूत्र, और गोरक्ष शतक—ने किस प्रकार स्वस्थ जीवन जीने की पद्धतियाँ प्रतिपादित की हैं। ये ग्रंथ न केवल चिकित्सीय दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण हैं, बल्कि इनमें जीवन की दार्शनिक और नैतिक व्याख्या भी समाहित है। इस शोध-पत्र में यह भी विवेचना की गई है कि कैसे वर्तमान वैश्विक समाज—जो एक ओर तेजी से औद्योगिकीकरण और आधुनिक जीवनशैली की ओर बढ़ रहा है, वहीं दूसरी ओर मानसिक तनाव, अवसाद, मोटापा, मधुमेह, रक्तचाप, और कैंसर जैसी जीवनशैली जनित बीमारियों से भी जूझ रहा है—वह अब समग्र चिकित्सा और प्राकृतिक जीवनशैली की ओर वापस लौटने के लिए प्रेरित हो रहा है। इस प्रवृत्ति ने योग और आयुर्वेद को पुनः वैश्विक मंच पर स्थापित कर दिया है।
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